यह सिद्धान्त डॉ. चो. हान. क्यू (साउथ कोरिया) ने 1970 के दशक में विकसित किया था। जब केमिकल फार्मिंग को देश में बढ़ावा देने पर सरकारी जोर था। चो. ने एक सिद्धांत किसानों के माध्यम से प्रचलित किया कि जिस प्रकार से मानव या पशु शरीर होते हैं। उसी प्रकार पौधे भी होते हैं। जैसे मानव बचपन मे शरीर की आवश्यकताएँ कुछ और होती हैं, युवावस्था में कुछ और जबकि वृद्धावस्था में शरीर की जरूरतें बदल जाती हैं। ठीक वैसे ही पौधों की भी विभिन्न अवस्थाएँ होती हैं और प्रत्येक अवस्था की कुछ विभिन्न आवश्यकताएँ होती हैं।
वैज्ञानिक सिद्धांतानुसार सही अवस्था में प्रभावी तरीके से पौधों को आवश्यक मात्रा में पोषण उपलब्ध कराना ही उपयुक्त है ताकि फसलें, पौधे या पशु अपनी पूरी क्षमताभर वृद्धि कर सकें और उत्पादन दे सकें। यह पोषण चक्र के सिद्धांत के पालन करने से ही संभव है।
1. बाल्यवास्था या शाकीय वृद्धि (Vegitative Grwoth): जब पेड़-पौधे अपने जड़ एवं डालियों और पत्तों का विकास करते हैं। इस अवस्था में पौधों को सर्वाधिक कैल्शियम, कार्बोहाइड्रेट की अधिक जरूरत होती है जिसे वे नाइट्रोजन में परिवर्तित कर लेते हैं।
2. प्रजनन अवस्था या पुष्पावस्था (Cross Over Phase or Morning Sickness Phase): इस अवस्था में पौधे गर्भवती महिलाओं की तरह होते हैं और इन्हें भी खट्टा खाने की इच्छा होती है। इसी को Morning Sickness भी कहते हैं और यह फॉस्फोरस एवं पोटाश से प्राप्त करते हैं।
3. फलावस्था या वृद्धावस्था (Productive Growth Phase): इस अवस्था में पौधे अपने समस्त तत्वों (कार्बोहाइड्रेट) को फल के रूप में स्टोर करने लगते हैं। इसी अवस्था में फलों के रंग-रूप और स्वाद विकसित होते है इसलिये इन्हें अतिरिक्त पोटेशियम की आवश्यकता होती है।
DAP और UREA जैसे केमिकल फ़र्टिलाइज़र और कीट प्रबंधन के नाम पर कीटनाशक को खरीदने में किसान के मुनाफे का एक बड़ा किस्सा खर्च जाता है। केमिकल उर्वरक और कीटनाशकों पर निर्भरता खेत की प्राकृतिक उर्वरता को भी नष्ट करती है और साल दर साल इनकी लागत बढ़ती जाती है। पोषण-चक्र के सिद्धांत को समझ कर किसान खेत की उर्वरता के लिए आवश्यक पदार्थों को प्राकृतिक रूप में खेत में ही उपलब्ध वस्तुओं से पूरा कर सकते है।
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